कर्मफल-सिद्घांत के अनुसार सुख रुपी फलों का त्याग तो सम्भव है, लेकिन दुख रुपी फलों को तो स्वयं ही भोगना पड़ता है, फिर भी परमात्मा दयावश सदा ही मिले हुए दुखों को सहने की शक्ति, इन दुखों से बाहर निकलने का ज्ञान व अवसर भी समय-समय पर देते ही रहते हैं, लेकिन मनुष्य सत्संग के अभाव में अज्ञानतावश इन मिले हुए अवसरों का लाभ ही नहीं उठाता, बल्कि बार-बार नये पाप कर्म करने से भी बाज नहीं आता.....सुधीर भाटिया फकीर
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