सभी मनुष्यों को अपने मिले हुए जीवन में स्थूल-शरीर को मात्र 1%, सूक्ष्म-शरीर को 10% और कारण-शरीर को 100% महत्व देना चाहिए, तभी हमारा-आपका मनुष्य जीवन सार्थक हो सकेगा, अन्यथा यह अनुपात बिगड़ने से मरने के बाद अधोगति कि सम्भावानायें भी बढ़ने लगती हैं।
हम सभी मनुष्यों को अपने जीवन में कर्मो के आधार पर ही प्रकृति से सुख-दुख रुपी फल मिलते हैं। इसलिए हम सभी मनुष्यों को कर्म करने से पूर्व कर्म की बारीकियों को भली-भांति समझ लेना चाहिए, ताकि दुख रूपी फलों से तो अवश्य ही बचा जा सके।
प्रत्येक भौतिक यन्त्र में क्रिया सदा ही चेतन तत्व द्वारा ही लाई जाती है। प्रकृति भी परमात्मा का एक विशाल यन्त्र है, जिसका संचालन परमात्मा द्वारा होता है, जैसे हमारा स्थूल-शरीर का संचालन आत्मा/परमात्मा द्वारा होता है।
एक साधारण मनुष्य के जीवन में लम्बे समय तक निरन्तर सुख भोगते रहने से भी मनुष्य का स्वभाव बिगड़ने की सम्भावनायें बढ़ने लगती हैं, इसलिए जीवन में सन्तुलन बनाये रखने के लिए भी अन्य मनुष्यों/जीवों के दुखों को भी दूर करने का प्रयास सदा करते रहना चाहिए।
आप सभी भाई-बहनों को "नवरात्रि" की मेरी ओर से बहुत-बहुत "शुभ कामनायें" कि हम सभी भाई-बहनों का जीवन आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक व आर्थिक रूप से सुन्दर व स्वस्थ बने। हम सभी भाई-बहन अपने-अपने कर्तव्य-कर्मों को प्रसन्नतापूर्वक व ईमानदारी से श्रद्धापूर्वक निभायें। हमारा आहार-विहार व व्यवहार पूर्ण रूप से शुद्ध हो। आपका आध्यात्मिक मित्र सुधीर भाटिया फकीर www.sudhirbhatiafakir.com
परमात्मा प्रकृति के सभी असंख्य जीवों से प्रेम करते हैं, केवल मनुष्यों से नहीं। जबकि कलयुग में अधिकांश मनुष्य स्वयं से ही प्रेम करते हैं, जबकि अन्य मनुष्यों से प्रेम करते हुए केवल दिखाई देते हैं, तब अन्य जीवों से ?
सभी मनुष्यों के पास परमात्मा को जानने, समझने व पाने का एक सुनहरा अवसर है, जिसका आरंभ सत्संग करने से ही होता है, लेकिन एक साधारण मनुष्य अक्सर अपने जीवन में सत्संग के प्रति तो उदासीन रहता है, जबकि विषय-भोगों के लिए भाग-दौड भी करता रहता है।
बुद्धि संसार से और विवेक परमात्मा से जोड़ता है। जबकि निरन्तर सात्विक-बुद्धि बने रहने से ही मनुष्य की विवेक-शक्ति जागती है और जब तक विवेक-शक्ति 100% जाग नहीं जाती, तब तक मनुष्य में कम-अधिक अनुपात में सुख भोगने की इच्छाएं बनी ही रहती हैं।
परमात्मा एक सर्वव्यापक आनन्दस्वरूप सत्ता है, जिसे कहीं ढूंढना नहीं होता, हमें केवल निरंतर सत्संग करते रहने से अपनी ज्ञानररूपी पात्रता बनानी होती है और पात्रता बन जाने पर परमात्मा अपने आनन्दरूपी झलकों का बोध करवाने लगते हैं।
पदार्थों (धन) को कभी भी अपने जीवन का लक्ष्य मत बनने दो, अन्यथा परमात्मा को जानने/समझने/पाने का लक्ष्य ही छूट जायेगा, क्योंकि पदार्थ/धन तामसी/राजसी हैं, तब ऐसी स्थिति में सतोगुण ही दूर रहता है, जबकि परमात्मा तो विशुद्ध सतोगुणी सत्ता है ?
एक साधारण मनुष्य धन का संग्रह करने में ही अपने जीवन का अधिकांश समय यूँ ही गँवा देता है, क्योंकि अधिक धन कमाने के पीछे मनुष्य का लक्ष्य पदार्थों का अधिक से अधिक भोग करने का ही होता है, जबकि भोगने वाली स्थूल-इंद्रियां तो क्रमश: शिथिल होती जाती है ?
सत्संग के अभाव में एक साधारण मनुष्य की स्थिति कुसंग की सहज ही बनी रहती है, क्योंकि तमोगुण भले ही प्रत्यक्ष रूप से कुसंग है, जबकि रजोगुण भी देर-सबेर कुसंग में ही गिरा देता है, जिसके फलस्वरूप कब पाप-कर्म शुरु हो जाते हैं, मनुष्य को इसका बोध भी नहीं रहता।
भौतिक प्रकृति द्वैत है, जैसे दिन के साथ रात जुड़ी है, उसी तरह से सुख के साथ दुख जुड़ा/छिपा रहता है, जो मनुष्य को ज्ञान/सत्संग के अभाव में सुख चखते समय दुख नजर नहीं आता।
सभी शास्त्रों में केवल भगवान को ही सच्चिदानंद/आनंदस्वरुप बतलाया गया है, जबकि संसार/प्रकृति को दुखालय बताया गया है, फिर भी एक बुद्धिमान मनुष्य मरते दम तक सँसार में ही सुख ढूंढने की भूल करता रहता है ?
कर्मफल-सिद्धांत के अनुसार कोई भी मनुष्य स्वयं द्वारा "ही" किये गये पाप-पुण्य कर्मों का फल भोगता है, जिसमें सुख रुपी फलों का त्याग तो किया जा सकता है, लेकिन दुख रुपी फलों को स्वयं ही खाना/भोगना पड़ता है।
मनुष्य योनि में ही हम अपने कारण-शरीर को सुन्दर बनाते हुए अपनी अज्ञानता समाप्त कर क्रमश: मोक्ष की दिशा की ओर बढ़ सकते हैं। जिसके लिए हम सभी मनुष्यों को तमोगुण से परहेज, रजोगुण मर्यादा में और सतोगुण का अधिक से अधिक संग करते रहना होगा।
एक सँसारी मनुष्य अपने जीवन में एक ही गलती को बार-बार करता रहता है, यदि मनुष्य भूतकाल में की गई गल्तियों से सीख नहीं लेता, तब तक उसके नये कर्मों में भी सुधार नहीं आता, फलस्वरूप मनुष्य के "बड़े भविष्य" की भी बिगड़ने की सम्भावनायें बढ़ने लगती हैं।
मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा उस दिन आरंभ होती है, जिस दिन मनुष्य परमात्मा से सुख मांगना बन्द कर देता है और मिली हुई परिस्थितियों में प्रसन्नचित्त रहता हुआ अपने कर्तव्य कर्मों को केवल सावधानीपूर्वक व ईमानदारी से निभाता है।
ध्यान एक बीज है, इसे जिस कार्य विशेष में लगाया जाता है, फिर वहीं का ज्ञान रूपी फल अंकुरित होता है। मनुष्य योनि में ही परमात्मा का ध्यान लगाना संभव है। इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए, अन्यथा संसार में ध्यान सहज ही जाने लगता है, जिसका अन्तत: फल शून्य के अलावा कुछ नहीं ?
मनुष्य द्वारा व्यक्तिगत/पारिवारिक सुख पाने के लिए किये गए सकाम पुण्य-कर्मों से भी कोई "आध्यात्मिक उन्नति" नहीं होती। इसलिए हम सभी मनुष्यों को सदा समाज हित के लिए ही यथासम्भव निष्काम-कर्म करने चाहिए।
तमोगुण/अज्ञानता के समाप्त होते ही सतोगुण/ज्ञान का प्रकाश आता है, जबकि जब-जब रजोगुण आता है, तो मनुष्य रजोगुण के प्रभाव में/आकर्षणों में फंस कर भोगों को भोगने में फिर अचेत/अज्ञानता में आ जाते हैं। इसलिए रजोगुण से उदासीन रहें।
मनुष्य को अपने जीवन में धन केवल तन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही कमाना चाहिए, तभी परमात्मा को पाने का लक्ष्य बन सकता है, अन्यथा, मन में धन ही धन का लक्ष्य बन जाने से परमात्मा की विस्मृति हो जीवन ही अनर्थ की जाने लगता है।
मनुष्य उच्च भौतिक-ज्ञान प्राप्ति से अधिक धन कमाते हुए केवल सुख-सुविधा के अधिक साधन ही खरीद सकता है, सुख-शान्ति नहीं। जबकि आध्यात्मिक ज्ञान लेने पर ही मनुष्य को सुख-शान्ति मिलती है।
शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान ही सच्चिदानंद/आनंद है, जबकि संसार/प्रकृति को दुखालय बताया गया है, फिर भी बुद्धिमान मनुष्य सँसार में ही मरते दम तक सुख ढूंढने की भूल करता रहता है।
कलयुग में अधिकांश मनुष्य अपने जीवन में सत्सँग की बातों को सुनने/पढ़ने या केवल "LIKE" करने तक ही महत्व देते हैं। जबकि सत्संग की बातों को अपनी दिनचर्या/व्यवहार/स्वभाव में ढालने से ही हमारी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ होती है, अन्यथा तो, मनुष्य के कर्मों में भी सुधार नहीं हो पाता।
"ब्रह्ममुहूर्त-ज्ञान सन्देश" जैसे सूर्य में प्रकाश सदा बना रहता है, वैसे ही भगवान में आनन्द सदा बना ही रहता है, जबकि हमारी-आपकी दुनिया में दुख सदा बने ही रहते हैं, फिर भी मनुष्य अज्ञानतावश संसार में ही रहना पसन्द करता है।
अधिकांश मनुष्यों का स्वभाव रजोगुणी ही होता है और संसारी आकर्षण भी रजोगुणी हैं। फिर, एक साधारण मनुष्य सत्संग के अभाव में ऐसी परिस्थितियों में बंध/फंस जाता है। इसीलिए इन आकर्षणों से बचने के लिए सत्संग करते हुए अपनी सात्विक दिनचर्या बनानी आवश्यक है।
कर्मफल सिद्धान्त के अनुसार कोई भी जीवात्मा केवल मनुष्य योनि में ही किए गए कर्म-फलों को ही भोग सकता है, यदि कोई मनुष्य अन्य किसी मनुष्य के सुखों को छीनता है, तो प्रकृति रुपी अदालत उसे दंड दिए बिना छोड़ती नहीं।
संसारी रजोगुणी विषय (गन्ध,रस,रुप,स्पर्श,शब्द) आरंभ में भले ही अल्पकालिक सुख देते हैं, लेकिन अन्ततः यह अमर्यादित भोगे गये सुख भविष्य में तन के स्तर पर दुख रूपी रोग व मन में विकारों की विकृति को ही बढ़ाते हैं।
मनुष्य योनि में ही सतोगुण में वृद्घि करते हुए हम अपने अन्तकरण में सात्विकता को बढ़ा सकते हैं। सात्विकता बढ़ने से ही मनुष्य रजोगुणी विषय-भोगों में एक मर्यादा रख पाता है, जो अन्तत: मनुष्य को तमोगुण में गिरने से भी बचाती है।
अधिकांश मनुष्यों में वृद्धावस्था आने मात्र से प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से सत्संग करने में कुछ रुचि बनने लगती है, भले ही आरंभिक सत्संग बेमन से ही होता है, जो नियमित रूप से करते रहने से भी मनुष्य पाप कर्मों से तो बच ही जाता है।