मनुष्य अपने स्वभाव, विचारों व कर्मों के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनता है और यह सब मनुष्य द्वारा प्रकृति के गुणों के संग के कारण बनते हैं, न कि जन्म-जाति के आधार पर.....सुधीर भाटिया फकीर
जैसे फलों का राजा आम है, वैसे ही 84,00000 योनियों में मनुष्य योनि को राजा योनि ही मानना चाहिए, क्योंकि मनुष्य योनि में मनुष्य परमात्मा रुपी मंजिल को पाने के लिए अपनी आध्यात्मिक यात्रा आरंभ कर सकता है, इसलिए मनुष्य जन्म पाकर हमें केवल परमात्मा को जानने की जिज्ञासा ही रखनी चाहिए, ताकि प्रकृति की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय के ज्ञान को समझते हुए भोगों से वैराग्य हो सके.....सुधीर भाटिया फकीर
विद्दुत-प्रवाह कभी भी उपकरण का स्वभाव देख कर पूर्ति नहीं करता। इसी तरह आत्मा अपनी शक्ति देने में जीव का स्वभाव नहीं पूछती, भले ही जीव राक्षस प्रवृति का हो या साधु प्रवृति का.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी जीवों की आत्माएँ स्वभाव से ही ज्ञानवान होती हैं, लेकिन प्रकृति के सम्मुख होने के कारण अधिकांश मनुष्य यानी आत्माएँ प्रकृति के 5 भोग विषयों में मर्यादा से अधिक आसक्त हो अपने मूल ज्ञान को आवर्त कर लेते हैं, जिसके फलस्वरूप हमारे अन्दर अलग-अलग स्तर अज्ञानता आ जाती है, जो केवल निरंतर सत्सँग करते रहने से ही जाती है.....सुधीर भाटिया फकीर
भगवान की सर्वव्यापी ब्रह्म-शक्ति सदा इस भौतिक प्रकृति के कण-कण में व्याप्त रहती है। इसलिए हम सभी मनुष्यों के स्थूल शरीर के द्वारा ही नहीं, बल्कि सूक्ष्म शरीर द्वारा होने वाला चिन्तन भी परमात्मा के संज्ञान में बना रहता है.....सुधीर भाटिया फकीर
जिस प्रकार फूलों के पास से गुजरने मात्र से हम सभी मनुष्यों को सुगन्ध/खुशबु मिल जाती है, उसी तरह संतो का संग/सत्संग करने मात्र से हमारे जीवन में भी दिव्यता, विनम्रता, प्रेम व सरलता आदि गुणों का आगमन सहज ही होने लगता है.....सुधीर भाटिया फकीर
परमात्मा ज्ञान के सागर हैं, जबकि मनुष्य का ज्ञान मात्र एक चम्मच जल के समान है। यह भी तभी संभव हो पाता है, जब मनुष्य परमात्मा की ओर अपनी सम्मुखता बनाये रखता है, यानी मनुष्य को अपने जीवन में सदा सत्सँग करते ही रहना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश मनुष्यों का सत्सँग बेमन से होता है, जिसके फलस्वरूप किये गये सत्संग का पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता, क्योंकि पुन: चिन्तन नहीं हो पाता। इसलिए सत्सँग हमारे व्यवहार/स्वभाव में दिखाई नहीं देता यानी हमारे कर्मों में सुधार नहीं आ पाता.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक विज्ञान केवल सुख-सुविधा के साधन ही उपलब्ध करवाने में समर्थ है, लेकिन हमारे मन को शांति नहीं दे सकते। मन को शांति केवल निरंतर सत्सँग करते रहने से ही मिलना सम्भव है, अन्यथा नहीं.....सुधीर भाटिया फकीर
आध्यात्मिक ज्ञान के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है। यह ज्ञान केवल पढ़ने या सुनने का ही विषय नहीं है, अपितु सुनने-पढ़ने के बाद चिंतन, मनन, शोध व अनुभव का विषय है। ऐसा चिंतन बने रहने से ही हमारे मन में परमात्मा की स्मृति यानी परमात्मा से प्रेम/योग होता है, अन्यथा मनुष्य भोगों में ही उलझा रहता है.....सुधीर भाटिया फकीर
परमात्मा की ओर निरंतर सम्मुख्ता बने रहने से ही आध्यात्मिक जीवन आरंभ होता है। आध्यात्मिक जीवन जीने से ही जीवन में सरलता आती है, जो जीवन में सदा प्रसन्नता बनाये रखती है.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश मनुष्यों को एकांत में बैठने से ही भय लगता है। एकांत हमें परमात्मा से जोड़ने में सहायक होता है, जबकि 2-3 या उससे अधिक होते ही हम संसारी भीड़ में खोने लगते है, जिसमें अक्सर भौतिक विषयों पर ही विचार-विमर्श होता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए हम सभी मनुष्यों अपने जीवन में एकान्त का स्वभाव भी बनाना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
जीवन में छल-कपट, ठगी, हेरा-फेरी से कमाया गया धन मनुष्य को सदा ही अशान्ति देता है। इस सत्य को मनुष्य अपने जीवन में जितनी जल्दी स्वीकार कर लेता है, मनुष्य उतने-उतने अंश में सुखी होता जाता है.....सुधीर भाटिया फकीर
ज्ञान से अभिप्राय आध्यात्मिक ज्ञान से ही होता है, जबकि भौतिक ज्ञान मात्र एक जानकारी के रुप में ही लिया जाता है, जिसकी सुनने की भी एक सीमा रहती है और यह ज्ञान भी सीमित है, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान असीमित है, जो आरम्भ में परमात्मा द्वारा ही दिया जाता है, जो एक समय के बाद गुरु परम्परा से आगे बढ़ता रहता है यानी ज्ञान कभी भी किसी का व्यक्तिगत नहीं होता.....सुधीर भाटिया फकीर
कर्म सदा ही स्थूल शरीर के स्तर पर ही किये जाते हैं, जो सूक्ष्म शरीर यानी मन-बुद्धि से प्रेरित होता है, लेकिन प्रेम यानी भक्ति आत्मा से ही संबंध रखती है, क्योंकि प्रेम आत्मा का स्वाभाविक गुण है, तन और मन-बुद्धि का नहीं.....सुधीर भाटिया फकीर
हम सभी मनुष्यों को अपने मिले हुए जीवन का प्रत्येक क्षण केवल सेवा, सत्संग व स्वाध्याय के लिए ही उपयोग में लेना चाहिए, तभी हमारा जीवन सफल व सार्थक हो पाता है, इन सबके अभाव में एक साधारण मनुष्य का झुकाव विषय-भोगों की ओर सहज ही जाने लगता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य की अधोगति होने की संभावनाएं बढ़ने लगती है.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी आत्माएँ स्वरूप से ही ज्ञानवान होती हैं, इसीलिए प्रत्येक मनुष्य अपनी अज्ञानता समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है, लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान मन में उतने अनुपात में ही टिकता है, जितने अनुपात में मन में विषय-भोगों के प्रति वैराग्य होता है.....सुधीर भाटिया फकीर
एकाग्रता रुपी ध्यान एक बीज के समान है, इसे जहां कहीं भी यानी जिस कार्य विशेष में लगाया जाता है, एक समय अंतराल के बाद फिर वहीं पर ज्ञान रूपी फल का अंकुरण होता है। मनुष्य योनि में ही परमात्मा का ध्यान लगा पाना संभव है। इसलिए मिले हुए अवसर का लाभ अवश्य ही उठाना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य को सत्सँग का तब पूर्ण लाभ मिलता है, जब मनुष्य श्रद्धापूर्वक सत्सँग करता है। अक्सर मनुष्य मन में कामनाओं की गठरी उठाये हुए ही सत्सँग करता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य सत्सँग करने के बाद भी खाली हाथ ही लौटता है यानी उसके जीवन में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं आता.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य जीवन की सफलता अनुशासित जीवन जीने में ही है, जो केवल सतोगुण में रह कर ही सम्भव हो पाता है। जप, तप, व्रत, स्वाध्याय व दान आदि करते रहने से ही जीवन अनुशासित रहता है, अन्यथा रजोगुण के आकर्षण ही देर-सबेर हम मनुष्यों को तमोगुण में गिरा हमारे पतन का कारण बनते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
एक बात सदा जीवन में याद रखना कि हमें अपने जीवन में कोई अन्य मनुष्य सुख-दुख नहीं देता, बल्कि हमारे स्वयं द्वारा किये गये पुण्य-पाप रुपी कर्म ही भविष्य में सुख-दुख रुपी फल दे कर नष्ट होते हैं। इसलिए हम सभी मनुष्यों को सत्सँग करते रहना चाहिए, ताकि ज्ञानमयी स्थिति में रहते हुए पाप कर्मों से बचा जा सके.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति के सभी पदार्थ तामसी कहे जाते हैं। इन सभी पदार्थों का एक स्वभाव होता है, जो कभी नहीं बदलता, जैसे अग्नि में दाहकता और जल में शीतलता का बने रहना इनका मूल स्वभाव है। इसी तरह विनम्रता व सरलता मनुष्य का मूल स्वभाव है, जिसको आज हम सब निरन्तर खोते भी जा रहे हैं। इसपर हम सभी मनुष्यों को चिन्तन/विचार करते रहना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
परमात्मा एक ही है और सभी मनुष्यों/जीवों पर समान प्रेम-दृष्टि ही रखते हैं और परमात्मा ने भौतिक प्रकृति के सभी पदार्थ हम सभी जीवों के उपयोग के लिए ही उप्लब्ध करवाये हैं, न कि भोग के लिए.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति की 84,00000 योनियो में केवल मनुष्य ही अपने जीवन में सेवा, सत्संग व स्वाध्याय जैसे सत्कर्म कर सकता है। ऐसा करते रहने से ही हमारा जीवन सफल हो पाता है, इन सभी सत्कर्मों के अभाव में मनुष्य का कुसंग सहज ही होने लगता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य की अधोगति होने की संभावनाएं बढ़ने लगती हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति के सभी जीव अपने-अपने स्वभाव में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं, जबकि इन्सान अपना स्वभाव बिगाड़ लेता है। इसीलिए इन्सान को ही बार-बार कहना पड़ता है कि " तू इन्सान बन जा ", क्योंकि कलयुग के इन्सान में इंसानियत का अभाव होता जा रहा है.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति की 84,00000 योनियो में केवल मनुष्य योनि ही सर्वश्रेष्ठ योनि माना गया है, क्योंकि इसी योनि में ही परमात्मा को जाना-समझा व पाया जा सकता है। इसलिए हम सभी मनुष्यों को अपने जीवन में निरंतर सत्संग करते रहना चाहिए, फिर चिंतन/मनन इतना करो कि परमात्मा का स्मरण सदा बना रहे. ऐसा होने से ही परमात्मा के प्रति समर्पण हो भक्ति का शुभारम्भ होता है.....सुधीर भाटिया फकीर
एक साधरण मनुष्य मिलने वाले सुखों का बहुत ही आदर भाव से स्वागत करता है, भले ही इन सुखों को मर्यादा से अधिक भोगने से हमारा भविष्य बिगड़ने की संभावनाएँ बड़ने लगती हैं, जबकि मिलने वाले सभी दुख हमारे जीवन को सुधारने में सदा ही सहायक होते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी जीव/आत्माएं परमात्मा का ही अंश है। सभी जीव जन्म से ही सुख चाहते हैं, दुख कोई नहीं चाहता। इसलिए जैसा व्यवहार हम स्वयं के लिए नहीं चाहते, वैसा व्यवहार हमें भूल कर भी अन्य जीवों के प्रति नहीं करना चाहिए। यही हमारा धर्म व पूजा है.....सुधीर भाटिया फकीर
परमात्मा के अनेकों नाम हैं, लेकिन मनुष्य सहायता के लिए परमात्मा को किसी भी नाम से भावना पूर्वक बुलाने पर परमात्मा सुन लेते हैं, जबकि मनुष्य का एक ही नाम है, उसको सहायता के लिए उस नाम से भी पुकारने पर मनुष्य उस बात को अनसुना कर देता है.....सुधीर भाटिया फकीर
जीवन में निरंतर सत्संग करते रहने से ही भगवान, आत्मा व प्रकृति का विशेष सूक्ष्म ज्ञान सुनने को मिलता है, फिर सुने हुए ज्ञान का मंथन होने से जीवन भर में संग्रहित धन/पदार्थ बेकार नजर आने लगते हैं, अर्थात् जीवन में की गई गल्तियों का एहसास होने लगता है, यही जीवन का एक निचोड़ है.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों में सुख की इच्छा करना तो आत्मा का एक स्वभाव माना जाता है, लेकिन ज्ञान के अभाव में मनुष्य भौतिक विषय-भोगों को पाने की ही इच्छा करता है, जबकि यह इच्छाएं मनुष्य के जीवन में कभी भी समाप्त नहीं होती। मनुष्य योनि में हमें प्रभु पाने की इच्छा रखनी चाहिए, अर्थात् हमें केवल अपनी इच्छाओं की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा.....सुधीर भाटिया फकीर
हमारा मन ही एक चाबी है, जो सँसार में लगने से सत्संग के अवसर पर ताला लगा देता है, जबकि यही मन सत्सँग में लग जाने मात्र से सँसार में जन्म-मरण के बन्धन रुपी ताले को ही खोल देता है.....सुधीर भाटिया फकीर
शास्त्रों के अनुसार भौतिक प्रकृति स्वभाव से ही अन्धकारमयी यानी दुखमयी बताई गई है, यहाँ के सभी सुख अस्थाई है। यहां के सुख तो घंटो या दिनों के हिसाब से आते हैं, लेकिन दुख महीनों और सालों के हिसाब से आते हैं, फिर भी सभी इंसान दिन-रात इन्ही भौतिक सुखों को पाने के लिये कर्म ही नहीं, विकर्म यानी पाप कर्म भी करने से परहेज नहीं करते.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति की 84,00000 योनियो में केवल मनुष्य विषय-भोगों में मर्यादा से अधिक लिप्त होने से अपना स्वभाव बिगाड़ लेता है, जबकि अन्य योनियो के जीव जैसे पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि जीवों के स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता.....सुधीर भाटिया फकीर
हम सभी मनुष्य मानसिक रूप से काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदि विकारों से ग्रसित है। मनुष्य योनि में ही हम अपने मनोविकारों पर विजय पा सकते हैं, यह विकार ही हम से पाप कर्म करवाते हैं। निरन्तर सत्संग करते रहने से ही मन के विकार दूर होते हैं और हमारा स्वभाव शुद्ध होने लगता है.....सुधीर भाटिया फकीर
अक्सर ऐसा माना जाता है कि सुख के पल बहुत जल्दी बीत जाते हैं, जैसे शादी-विवाह के पल। लेकिन दुख की घड़ियाँ बिताये नहीं बीतती, जैसे कभी किसी स्थिति विशेष में हमें शव के पास रात गुजारनी पड़ जाती है.....सुधीर भाटिया फकीर
प्रकृति केवल मनुष्य योनि में ही किए गए सकाम कर्मों के आधार पर हम सभी मनुष्यों को नंबर/फल देती है, जबकि भगवान हम सभी मनुष्यों को निष्काम कर्म, आध्यात्मिक ज्ञान व भक्ति के आधार पर ही नंबर देते हैं, जबकि मनुष्य योनि में ही हमें भगवान से जुड़ने का एकमात्र अवसर है, जिसका हम सभी मनुष्यों को लाभ उठाना चाहिए......सुधीर भाटिया फकीर
सभी सुख-दुख रुपी परिस्थितियों को परमात्मा का दिया हुआ प्रसाद समझ कर मन में सन्तोष के भाव व प्रसन्नता बनाये रखनी चाहिए, जिसके फलस्वरूप मनुष्य एक तरफ सुखों को भोगने से बच जाता है और दूसरी ओर दुखों से लड़ने की शक्ति भी पा लेता है.....सुधीर भाटिया फकीर
प्रकृति रुपी माया के 2 रुप हैं, विद्या-माया और अविद्या-माया। अविद्या माया यानी रजोगुणी और तमोगुणी माया, जोकि पुण्य कर्मों व ज्ञान की प्राप्ति से समाप्त हो जाती है, लेकिन विद्या माया यानी सतोगुणी माया, जोकि भगवान की भक्ति करने से ही क्रमश: समाप्त होनी आरंभ होती है, अन्यथा नहीं.....सुधीर भाटिया फकीर
लोभ का परिणाम सदा ही दुखदायी होता है, क्योंकि लोभवश प्राप्त पदार्थ अहंकार लातें हैं और पदार्थों के नहीं मिलने से क्रोध जन्म लेता है अर्थात् दोनों ही स्थितियों में मनुष्य की हानि होती है, फिर भी मनुष्य की नजर लाभ से अधिक लोभ पर ही बनी रहती है.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य अपने जीवन में अपने जीवन का अनमोल समय केवल विषय-पदार्थों को भोगने में या इन भोग्य पदार्थों के संग्रह करने में यूँ ही गवांता रहता है, फिर भी स्वयं को बुद्धिमान समझने की भूल करता रहता है। हम सभी मनुष्यों का जीवन हर क्षण छोटा होता जा रहा है, इसपर हम सभी मनुष्यों को निरंतर अपना चिन्तन करते रहना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
मोह हमेशा स्वार्थ की ही सवारी करता है और यह मोह किसी भी मनुष्य से तब तक ही रहता है, जब तक उससे सुख मिलता है और दुख मिलते ही यह मोह किसी बादल की भांति हट जाता है, जबकि प्रेम निस्वार्थ भाव से स्थाई रूप से बना रहता है.....सुधीर भाटिया फकीर
वर्तमान कलयुग में प्राय ऐसा देखा जाता है कि एक साधरण मनुष्य को अपने भौतिक जीवन में कुछ मिनटों का भी अन्धकार बर्दाश्त नहीं होता, लेकिन मनुष्यों के मन में अनादि काल से अन्धकार ही अन्धकार विकार रुप में बना हुआ है, इस बात का मनुष्य को आभास तक भी नहीं है.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि का शरीर पाने के लिए हमने पुण्य कर्मों की कीमत चुकायी होती है, इसलिए हम सभी मनुष्यों को मिले हुए शरीर से पाप कर्म करने से अवश्य ही बचना चाहिए, अन्यथा ? .....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही मनुष्य अपने जीवन में अपना सतोगुण बढ़ा कर अपनी दिनचर्या में सुधार लाते हुए अपनी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। जिसके लिए मनुष्य को रात को जल्दी सो जाना चाहिए, ताकि सूर्य के निकलने से 2 घंटे 40 मिनट पहले यानी ब्रह्म-मुहूर्त में जरुर उठ जाना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
हम सभी मनुष्यों को अपने जीवन में सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से करते रहना चाहिए, अन्यथा प्रकृति की नजरों में हम अपराधी ही माने जाते हैं....सुधीर भाटिया फकीर
84,00000 योनियो में मनुष्य योनि विशेष रुप से कर्म-योनि व साधना योनि है, अर्थात् मनुष्य योनि में ही किए गए कर्मों से पाप और पुण्य बनते हैं. जब हमारी किसी भी कर्म विशेष से दूसरे जीव/जीवों को सुख मिलता है, तो हमारा पुण्य कर्माश्य बनता है और दुख मिलने मात्र से हमारा पाप कर्माश्य बनता है, इसलिए हम सभी मनुष्यों को प्रत्येक कर्म सोच-समझ कर ही करना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
पानी को एक जगह लम्बे समय तक इकट्ठा मत होने दो, अन्यथा उस पानी में विशैले जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इसी तरह अधिक धन को अपने पास संग्रह करने से बचो, अन्यथा यह धन विषय-भोगों में ही बहने लगता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य की अधोगति होने की संभावनाएँ अन्ततः बढ़ने लगती हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
कलयुग में प्राय ऐसा माना जाता है कि मनुष्य का स्वभाव बिगड़ने की संभावनाएँ अधिक बनी ही रहती हैं और अक्सर हमारे अधिकांश कर्म स्वभाववश ही होते हैं। इसलिए हम सभी मनुष्यों को अपने स्वभाव में निरंतर सुधार करने के लिए सत्सँग करते रहना चाहिए, ताकि हम पाप कर्मों से बच सकें.....सुधीर भाटिया फकीर
जहाँ तक सम्भव हो सके, सभी मनुष्यों को अन्य जीवों या अभावग्रस्त मनुष्यों की प्रत्यक्ष रूप से मदद करनी चाहिए, अन्यथा समय का अभाव होने पर दान देने की इच्छा तो बनी ही रहनी चाहिए। ऐसा स्वभाव बना लेने से ही मनुष्य पाप-कर्म करने से डरता है.....सुधीर भाटिया फकीर
प्रकृति के सभी पदार्थों का अपना एक स्वभाव होता है, जो कभी नहीं बदलता, जैसे पानी का स्वभाव शीतलता है, लेकिन इसी पानी में अग्नि का संपर्क हो जाने से इसमें उबाल आ जाता है, लेकिन अग्नि से संपर्क हटते ही पानी फिर अपने मूल स्वभाव में ही लौट आता है.....सुधीर भाटिया फकीर
अपने कर्म-रुपी बीजों को सोच-समझ कर ही बोना चाहिए, अन्यथा बोये गये बीज एक दिन अंकुरित होते हुए पौधे व वृक्ष के रुप में आने पर सुख-दुख रुपी फल हमारी ही झोली में गिरेंगे.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों को अपने जीवन में निरंतर सत्संग करते रहना चाहिए। सत्सँग का फल उस दिन मिलता है, जब मनुष्य को ऐसा बोध होने लगता है कि जीवन भर के संग्रह किए गये सभी धन/पदार्थ बेकार हैं यानी भौतिक उप्लब्दियाँ गौण नजर आने लगती हैं, तभी परमात्मा से सहज ही प्रीति होती है.....सुधीर भाटिया फकीर
कलयुग में प्राय ऐसा देखा गया है कि हमारे जीवन में जैसे-जैसे सुख-सुविधा के साधनों में वृद्घि होती जा रही है, वैसे-वैसे ही हमारे जीवन में नई-नई समस्याएँ भी जन्म ले रही हैं, जिनके फलस्वरूप हम सभी मनुष्यों के जीवन में दुख, क्लेश, अशान्ति बनी ही रहती हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
गुरू व आध्यात्मिक शास्त्र हम सभी मनुष्यों को परमात्मा रुपी मंजिल को पाने के लिए केवल रास्ता ही दिखा सकते हैं, यदि मनुष्य इन रास्तों पर चल कर अपने कर्मों में यानी अपने स्वभाव में सुधार नहीं ला पाता, तो परमात्मा रूपी मंजिल को मनुष्य कभी नहीं पा सकता और मनुष्य सँसार में यूँ ही किये गये कर्मों के आधार पर सुखी-दुखी जीवन बिताता ही रहेगा.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में प्राय ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश मनुष्यों की सुखों को भोगने में परमात्मा की स्मृति कम या समाप्त हो जाती है, जबकि दुखों में परमात्मा की सहज ही स्मृति आ जाती है, फिर भी सभी मनुष्यों में सुखों की प्राप्ति के लिए ही भाग-दौड़ करते देखा जाता है.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों को समय-समय पर अपने स्वभाव का निरीक्षण करते रहना चाहिए, क्योंकि मनुष्य योनि में ही स्वभाव सुधरता भी है और बिगड़ता भी है, अर्थात् मनुष्य अपने जीवन में जैसा स्वभाव बना लेता है, फिर वैसे ही कर्म अपने आप होने लगते हैं। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि सत्संग के अभाव में मनुष्य का स्वभाव बिगड़ने लगता है, इसलिए सभी मनुष्यों को स्वयं को सदा ही सत्संग की स्थिति में ही रखना चाहिए, ताकि हमारे स्वभाव में निरंतर सुधार होता रहे अर्थात् हम पाप कर्मों से बच सकें.....सुधीर भाटिया फकीर
जीवन में सात्विकता बढ़ने से ही जीवन में प्रसन्नता व शांति आती है। हालांकि सभी रजोगुणी भोग-विषय आरंभ में भले ही सुख/स्वाद देते हैं, लेकिन अन्ततः यह सभी सुख/स्वाद बाद में दुख/रोग ही उत्पन्न करते हैं। आपका आध्यात्मिक मित्र सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही हम अपने सतोगुण में वृद्घि कर अपनी सात्विकता बढ़ा सकते हैं और सात्विकता बढ़ने मात्र से ही हमारे अन्दर रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है, जो सभी प्रकार के रोगों व बुराईयों से लड़ने में मददगार साबित होती है.....सुधीर भाटिया फकीर
संसारी आकर्षणों से वैराग्य होने के बाद किया गया सत्सँग मन में स्थायी रूप से टिकता है यानी अपना प्रभाव दिखाता है, अन्यथा किये गये सत्सँग को संसारी रजोगुणी आकर्षण हवा के झोकों के समान उड़ा ले जाते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
संसार को दुखालय कहा जाता है अर्थात् दुखालय रूपी संसार में हम सभी मनुष्यों को दुख रूपी फल/ताप कम-अधिक मात्रा में अपने-अपने कर्मों के हिसाब से मिलते ही रहते हैं (जैसे वर्तमान समय में कोरोना से...), जिसके फलस्वरूप हमारा मन बेचैन व अशांत बना ही रहता है। आत्मा-परमात्मा का सजातीय संबंध है यानी मनुष्य को परम शांति व प्रसन्नता तो केवल परमात्मा से क्रमश: जुड़ने पर ही मिलनी आरंभ होती है.....सुधीर भाटिया फकीर