किसी भी मनुष्य विशेष की आवश्यकताओं की पूर्ति तो की जा सकती हैं, लेकिन भोग इच्छाओं की नहीं। दाल-रोटी का मिलना हमारे स्थूल शरीर की आवश्यकता है, लेकिन पनीर, रायता, खीर, पापड़, अचार की इच्छा रखना भोग है.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही आध्यात्मिक उन्नति कर पाना संभव होता है, अन्य किसी भी योनि में नहीं। जोकि निरंतर गुरुओं का संग करते रहने से ही संभव हो पाता है, अन्यथा नहीं। हमारे जीवन में सत्संग के अतिरिक्त होने वाला सभी प्रकार का संग ही कुसंग बन जाता है, जो मनुष्य से कब-कब पाप-कर्म करवा लेता है, मनुष्य को स्वयं भी पता नहीं चलता.....सुधीर भाटिया फकीर
ऐसा माना जाता है कि संसारी विषय-भोगों से वैराग्य हुए बिना परमात्मा से जुड़ना सम्भव हो नहीं पाता। हालांकि, यह वैराग्य हम सभी मनुष्यों के जीवन में आता है, लेकिन वैराग्य रुकने का समय मिनट, घंटा, दिन, सप्ताह, महीना तक रहता है, साल या सालों यानी जीवन भर का नहीं ?.....सुधीर भाटिया फकीर
कलयुग में प्राय ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश मनुष्यों की परमात्मा में विशेष रूचि नहीं होती। तब ऐसे में धार्मिक कर्मकांड करते रहने से भी परमात्मा से जुड़े रहना एक अच्छी बात है। कर्मकांड भय या लोभ से होने पर परमात्मा से अस्थायी सम्बन्ध तो बने ही रहते हैं, लेकिन कर्मकांड ज्ञानपूर्वक होने से यह हमारी आध्यात्मिक उन्नति करवाने में सहायक होते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि पानी और धन दोनों का ही एक जैसा स्वभाव है, क्योंकि अधिक पानी सहज ही ढलान की ओर व अधिक धन इंसान को पतन यानी भोगों की ओर सहज ही ले जाने लगता है, अक्सर इंसान इन बातों पर चिन्तन ही नहीं करता.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि एक साधारण मनुष्य के जीवन में कर्म और ज्ञान से स्वभाव उतना नहीं सुधरता, जितना भक्ति करने से स्वभाव सुधरता है और भक्ति केवल और केवल प्रेम पर टिकी है। प्रेम में सदा ही त्याग की भावना प्रधान होती है, लेकिन कलयुग में एक सामान्य मनुष्य सदा ही लेने की फिराक में जीवन भर उलझा रहता है.....सुधीर भाटिया फकीर
श्रद्धापूर्वक सत्संग, चाहे पढ़ने से हो या सुनने से, कभी बेकार नहीं जाता, फिर किये गये सत्संग का चिन्तन करते रहना चाहिए। यह चिन्तन ही एक दिन हमारा स्वभाव बन जाता है और जीवन की दिशा में सकारात्मक परिवर्तन ले आता है.....सुधीर भाटिया फकीर
प्रकृति भगवान की ही एक अदालत है यानी प्रकृति में कर्मफल-सिद्धान्त के अनुसार केवल मनुष्य योनि में ही किये गये सभी पाप-पुण्य कर्मों का न्यायपूर्वक सुख-दुख रुपी फल व बने हुए संस्कारों के आधार पर ही 84,00000 योनियों में जन्म देती रहती है। इसलिए हम सभी मनुष्यों को कर्म की बारीकियों को भली-भांति जान लेना चाहिए......सुधीर भाटिया फकीर
अंधकार और अज्ञानता एक ही सिक्के की दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं यानी इन दोनों शब्दों के एक समान ही अर्थ हैं, जैसे अंधेरे में यह संसार नजर नहीं आता और वैसे ही अज्ञानता में परमात्मा का कोई बोध नहीं होता अर्थात् आभास नहीं होता.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य को अपने जीवन में सत्संग करने से ही ज्ञान होता है और अक्सर ज्ञान के अभाव में मनुष्य के कर्म भी सही दिशा में नहीं हो पाते। वास्तव में निरंतर सत्संग करते रहने से ही परमात्मा का ज्ञान-विज्ञान समझ में आ पाता है, जिसके जान लेने के बाद ही संसार से सहज ही वैराग्य हो जाता है, जो भक्ति का बंद दरवाजा खोल देता है.....सुधीर भाटिया फकीर
कलयुग में प्राय झूठों व मूर्खों की भीड़ देखी जा सकती है और सच्चा इन्सान कभी भी उस भीड़ का हिस्सा नहीं बनता, जबकि सच बताने वाले गिनती के ही लोग होते हैं, जिन्हें भीड़ कभी भी स्वीकार नहीं करती.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही किए गए सभी प्रकार के पाप और पुण्य कर्म लिखे जाते हैं। जब हमारे किसी कर्म विशेष से दूसरे जीव/जीवों को सुख मिलता है, तो हमारा पुण्य कर्माश्य बनता है और दुख मिलने से हमारा पाप कर्माश्य बनता है। पुण्य कर्मों का सुख रुपी फलों को त्यागा भी जा सकता है, लेकिन दुख रुपी फल तो मनुष्यों को भोगने ही पड़ते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में प्राय ऐसा देखा जाता है कि सभी मनुष्यों के स्थूल शरीर 6-8-10 घंटे की नींद लेने के उपरांत जाग ही जाते हैं, लेकिन हमारे मन/सूक्ष्म शरीर अनेक जन्मों से सोये हुए हैं, जो सत्संग करने से भी नहीं जाग पाते.....सुधीर भाटिया फकीर
शक्ति कहीं भी हो, सदा ही अपना कार्य अदृश्य रूप से ही सम्पन्न करती है। हमारे-आपके घरों की विद्युत-शक्ति से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। फ्रिज में यह शक्ति पानी को ठण्डा करती है और गीजर में पानी को गर्म करने का कार्य करती है, अर्थात् प्रत्येक उपकरण शक्ति पाकर अपने स्वभाववश कार्य करने को बाध्य हो जाता है.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति की 84,00000 योनियों के सभी असंख्य जीव, चाहे चींटी/हाथी या मनुष्य हो, सभी जीवों में ही हर क्षण सुख पाने की प्रवृत्ति और दुख से निवृत्ति की इच्छा सदा स्वभाव में बनी ही रहती है। इसीलिए सभी जीवों का होने वाला प्रत्येक कर्म-विकर्म भी इसी उद्देश्य से ही किया जाता है.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य का सत्सँग के अभाव में कुसंग सहज ही होने लगता है और कुसंग को काले रंग के समान मानो, जो अपना रंग तुरंत दिखाता है, जबकि सत्सँग सफेद रंग की भाँति अपना रंग धीरे-धीरे दिखाता है.....सुधीर भाटिया फकीर
कलयुग में प्राय ऐसा देखा जाता है कि समाज के अधिकांश लोग अक्सर अपने दुखों को दूर करने के लिए ही परमात्मा को याद करते दिखाई देते हैं। इसीलिए अक्सर स्वस्थ और धनी इंसान परमात्मा को याद नहीं करते, फिर ऐसे लोग केवल तन से भक्ति करते हुए नजर भले ही आ जाते हैं, लेकिन उनका मन परमात्मा में टिक नहीं पाता.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति द्वैत है, जैसे दिन के साथ रात जुड़ी है, उसी तरह से सुख के साथ ही दुख छिपा रहता है, जो एक साधारण मनुष्य को सुख चखते समय दुख नजर नहीं आता यानी सुख मात्र एक छलावा है.....सुधीर भाटिया फकीर
अक्सर संसारी मनुष्य अपने वर्तमान जीवन के समय में भूतकाल की यादों या भविष्य की कल्पनाओं में ही खो कर अपने वर्तमान समय को ही गवांते रहते हैं और यह नहीं जानते, कि वर्तमान काल में भी हमने जिन वस्तुओं/मनुष्यों से मोह पाल रखा है, यह सब कुछ ही नहीं, बल्कि स्वयं हमारा जीवन भी छिन जाएगा.....सुधीर भाटिया फकीर
हम सभी मनुष्य एक नाव के समान हैं और सँसार एक सागर है। हमारे 5 विकार काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार लहरों के समान हैं। यह विकार रुपी लहरें मर्यादा में रहने से हमारी नाव नहीं डूबती, लेकिन मर्यादा से अधिक ऊँची लहरें मनुष्य रुपी नाव को ही डुबो देती हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही हमारे-आपके द्वारा किए गए सभी प्रकार के कर्म और विकर्म प्रकृति रूपी मिट्टी में बोये गए बीजों के समान है, जो दिनों, महीनों, सालों या अगले जन्म/जन्मों में एक समय अंतराल के बाद ही पकने पर कर्माशय + संस्कारों के अनुसार 84,00000 योनियों में सुख-दुख रुपी फल यानी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों देते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में अक्सर ऐसा माना जाता है कि सभी संसारी बच्चे 3-4 वर्ष की उम्र तक आते-आते बोलना आरंभ कर देते हैं, लेकिन इन्सान की उम्र बीत जाती है और उसे समझ नहीं आती कि उसे क्या बोलना है ?
जब मनुष्य को अपने जीवन में परमात्मा का ज्ञान-विज्ञान यानी तत्व रुपी यथार्थ ज्ञान समझ में आ जाता है, तभी मनुष्य में परमात्मा से प्रभावित होकर भौतिक विषयों के प्रति सहज ही अरुचि उत्त्पन्न हो जाती है.....सुधीर भाटिया फकीर
एक साधारण मनुष्य के 90% कर्म बने हुए संस्कारों से यानी बने हुए स्वभाववश ही होते हैं। केवल मनुष्य योनि में ही स्वभाव सुधरता भी है और बिगड़ता भी है, अर्थात् मनुष्य अपने जीवन में जैसा स्वभाव बना लेता है, फिर वैसे ही कर्म अपने आप होने लगते हैं और सत्संग के अभाव में अक्सर स्वभाव बिगड़ने लगता है.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश मनुष्यों के जीवन में, जब सुख लम्बे समय तक बने रहते हैं, तब इन्सान में अक्सर इंसानियत का बने रहना कुछ कठिन हो जाता है। इसलिए जीवन में मिलने वाले सभी दुखों का भी स्वागत करते रहना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
कोरोना की वर्तमान सुनामी में सफाई, दवाई, लड़ाई जैसे हथियार छाते के समान छोटे पड़ चुके हैं। सुनामी में जाने से ही बचें और सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन करें, परमात्मा में अटूट श्रद्धा बनायें रखें व "आध्यात्मिक ज्ञानात्मक चैनल" www.youtube.com/c/sudhirbhatiaFAKIR और www.sudhirbhatiafakir.com से जुड़े। आपका आध्यात्मिक मित्र सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों को यह बात पक्के तौर पर याद रखनी चाहिए कि जब-जब मनुष्य अपने जीवन में अपने सुख के लिये प्रकृति के अन्य जीवों को दुख यानी पीड़ा देता है, तो मनुष्य की मरने के बाद दुख रुपी फल भोगने के लिए नीचे की योनियो में जन्म लेने की संभावनाएँ प्रबल होने लगती हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों के स्थूल शरीर युवावस्था की एक उम्र के बाद बूढ़े होते जाते हैं, लेकिन सूक्ष्म शरीर यानी मन सदा ही जवान बने रहते हैं, अर्थात् विषय-भोगों की कामनाएँ बनी ही रहती हैं, जो मनुष्य के कर्मानुसार नये जन्म का कारण बनते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक जगत यानी सँसार सभी मनुष्यों को प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है। मनुष्य इसी में अपना जीवन व्यतीत करता है। इसलिए यह सँसार नित्य ही लगता है, जबकि सर्वव्यापी परमात्मा, जिसकी सत्ता हर क्षण महसूस की जा सकती है, बस वही परमात्मा है, जो प्रत्यक्ष हमें दिखाई नहीं देता, लेकिन सदा टिका रहता है, हम सभी मनुष्यों को उस सत्ता विशेष से ही जुड़ना चाहिए.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य धर्म की बातें पढ़ता है, सुनता भी है, लेकिन मन से नहीं मानता, इसलिए उसके संस्कार नहीं बनते और उसका व्यवहार नहीं सुधरता, जिसके फलस्वरूप कलयुग अधिक गहरा होता जा रहा है.....सुधीर भाटिया फकीर
कर्मों के सिद्घांत के अनुसार भौतिक प्रकृति प्रभु की बनायी गयी एक अदालत है। इस अदालत में मनुष्य योनि में किए गए कर्मों-विकर्मों का सुख-दुख रूपी फल 84,00000 योनियों में क्रमबद्ध तरीके से दिया जाता है और यहां की अदालत (यानी सभी देशों की) की + - की भरपाई भी प्रकृति की अदालत द्वारा कर दी जाती है.....सुधीर भाटिया फकीर
सतोगुण के अभाव में व रजोगुण के प्रभाव से अक्सर जीवन में आरंभ में बुराईयां का आगमन चुपचाप धीरे-धीरे ही होता है, लेकिन गहरे रजोगुण में बुराईयों में वृद्घि होने से मनुष्य तमोगुण में कब गिर जाता है, मनुष्य को स्वयं भी पता नहीं चलता ?.....सुधीर भाटिया फकीर
आवश्यकता से अधिक धन आने से अक्सर मनुष्य का आध्यात्मिक ज्ञान आवर्त होने लगता है यानी जीवन में अज्ञानता आने लगती है, जबकि धन के जाने से जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनने लगती है, फिर भी एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन में धन पाने के लिए ही बैचैन रहता है ?.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति स्वभाव से ही अन्धकारमयी कही जाती है। प्रकृति के सभी सुख अस्थाई होते है, इसीलिये ऐसा भी कह दिया जाता है कि प्रकृति के सुख तो घंटो या दिनों के हिसाब से आते हैं, लेकिन दुख महीनों और सालों के हिसाब से ही आते देखे गए हैं, फिर भी सभी मनुष्य दिन-रात इन्ही भौतिक सुखों को पाने के लिये कर्म ही नहीं करते, बल्कि विकर्म/पाप भी करते देखे जाते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों को अपने जीवन में धार्मिक कर्मकांड करते रहना चाहिए, भले ही इन कर्मकांडों को लोभ से किया जाये या भय से, इन कर्मकांडों को करते रहने से केवल इतना ही लाभ है कि मनुष्य अधोगति से तो बच ही जाता है.....सुधीर भाटिया फकीर
एक साधारण मनुष्य मरते दम तक परमात्मा और प्रकृति में भेद ही समझ नहीं पाता। दोनों तत्वों में बहुत गहरा फासला है, जिसे हम पूरे जीवन में समझ नहीं पाते। परमात्मा को केवल मनुष्य योनि में ही जाना-समझा और पाया जा सकता है। मनुष्य चेतन है और परमात्मा परमचेतन है, जबकि प्रकृति तो जड़ है, इसलिए अन्ततः मनुष्य को आज नहीं, तो कल परमात्मा से प्रेम सहज ही करना होगा.....सुधीर भाटिया फकीर
प्रत्येक शुभ कर्म से हमें परमात्मा की नजदीकियों का ऐहसास करवाते हैं, जबकि छोटे से छोटा पाप कर्म भी हमें परमात्मा से दूर करता जाता है। इसी आधार पर हम सभी मनुष्य अपनी-अपनी स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
अक्सर ऐसा देखा जाता है कि एक साधारण मनुष्य अपने जीवन में बार-बार गल्तियां करता रहता है। भूतकाल में की गई गल्तियों से सभी मनुष्यों को सीख लेनी चाहिए और वर्तमान जीवन में नये कर्मों पर अवश्य ही सुधार करते रहना चाहिए, ताकि हमारा भविष्य और बड़ा भविष्य बिगड़ने से बच जाये, अन्यथा ?.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति की 84,00000 योनियो में केवल मनुष्य योनि पाकर ही मनुष्य परमात्मा को जानने की जिज्ञासा रख परमात्मा को जान सकता है, अन्य किसी भी योनि में नहीं। इसलिए हम सभी मनुष्यों को मिले हुए अवसर का लाभ अवश्य ही उठाना चाहिए, अन्यथा ?.....सुधीर भाटिया फकीर
हम सभी आत्माएँ स्वभाव से ही ज्ञानवान हैं और परमसुख की इच्छा रखना भी सभी आत्माओं का स्वभाव है, लेकिन फिर भी हम सभी मनुष्य अनादि काल से अलग-अलग स्तर पर मायाबद्ध होने के कारण दुखी है, क्योंकि एक साधारण मनुष्य ज्ञान के अभाव में प्रकृति के 5 विषय-भोगों में ही सुख प्राप्ति की इच्छा बनाये रखता है.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य की आधी पहचान उसके द्वारा बोले गये बोलों/शब्दों से होती है और पूरी पहचान उसके द्वारा होने वाले कर्मों से होती है, न कि शक्ल-सूरत से.....सुधीर भाटिया फकीर
परमात्मा केवल मनुष्यों से ही नहीं, बल्कि भौतिक प्रकृति की 84,00000 योनियों के सभी जीवों से भी प्रेम करते हैं, लेकिन मनुष्य मरते दम तक संसार को ही अपना मानता है और सँसार से ही प्रेम करता है। अक्सर ऐसा माना जाता है कि 99% लोग संसार की ठोकरे खाकर ही परमात्मा की ओर चलते हैं, उससे पूर्व नहीं.....सुधीर भाटिया फकीर
एक धार्मिक मनुष्य की भोग इच्छाएं भले ही सीमित रहती हैं, लेकिन मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा उसी दिन आरंभ होती है, जिस दिन उसके मन में भौतिक विषय-भोगों की कोई भी इच्छा नहीं रहती.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही हम अपना स्वभाव बिगाड़ भी सकतें हैं और स्वभाव सुधार भी सकतें हैं। जीवन में सतोगुण का अधिक संग करने मात्र से ही हमारा स्वभाव सुधरने लगता है, जबकि तमोगुण का संग बढ़ने मात्र से हमारा स्वभाव बिगड़ने लगता है, जिसके फलस्वरूप हमारा स्थूल शरीर ही अपवित्र नहीं होता, बल्कि हमारा सूक्ष्म + कारण शरीर भी अपवित्र होने से मनुष्य की अधोगति के रास्ते बनने लगते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
इस बात को तो सभी मनुष्यों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है कि अन्धकार में सँसार नजर नहीं आता। इसीलिए तो सभी प्रकार की खुशियों को मनाने के लिए प्रकाश/रोशनी को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है, तब ऐसे में, फिर ज्ञान के अभाव में यानी अज्ञानता रुपी अन्धकार में भगवान का बोध कैसे हो सकता है ?.....सुधीर भाटिया फकीर
एक साधारण मनुष्य का अपने जीवन में खाना-पीना यानी आहार, मैथुन, सोना/निंद्रा आदि भोग अनियन्त्रित रहते हैं और इन्हीं 3 भोगों के छिन जाने का सदा भय बना रहता है, जबकि पशु-पक्षियों के जीवन में यह भोग सीमा में रहते हैं, जिसके फलस्वरूप अधिकांश मनुष्य पशु-पक्षियों की तुलना में बहुत अधिक रोगग्रस्त देखे जाते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति द्वैत मानी जाती है, इसलिये प्रकृति में अकेला सुख कभी भी नहीं होता, सुख के साथ ही दुख छिपा रहता है। अक्सर एक साधारण मनुष्य को सुख चखते/भोगते समय दुख नजर नहीं आता.....सुधीर भाटिया फकीर
भगवान ने केवल मनुष्यों को ही स्वयं को जानने, समझने व पाने की एक पात्रता/योग्यता दी है यानी हम सभी मनुष्यों के पास एक सुनहरा अवसर है, इसलिए इस दिशा में हम आप जितनी भी मेहनत कर लेंगे, फिर ऐसी मेहनत कभी भी बेकार नहीं जाएगी, इसका आरंभ सत्संग करने से ही होता है, लेकिन कलयुग में एक साधारण मनुष्य अक्सर सत्संग करने के प्रति उदासीन बना रहता है.....सुधीर भाटिया फकीर
सँसार में प्राय: ऐसा देखा गया है कि मनुष्यों के जीवन में प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से कोई न कोई भौतिक या आध्यात्मिक लक्ष्य बना ही होता है, फिर मन उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही भले ही स्थूल शरीर द्वारा प्रयास सीमित रुप से करता हो, लेकिन मन में चिन्तन तो धूमता ही रहता है.....सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति की 84,00000 योनियो में केवल मनुष्य योनि को ही कर्म-योनि व साधना योनि कहा गया है, जबकि शेष सभी योनियो को भोग योनि कहा गया है। इसलिये मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है और भगवान किसी भी मनुष्य के कर्मक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते, भले ही अन्दर से शुभ कर्मों को ही करने की प्रेरणा देते रहते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
तमोगुणी मनुष्य तो सत्संग करता ही नहीं है, जबकि रजोगुणी मनुष्य बेमन से सत्संग करता है, इसलिये उसका लिया हुआ ज्ञान अधिक समय तक टिकता नहीं है। इसलिए हम सभी मनुष्यों को अपने जीवन में श्रध्दापूर्वक ही सत्संग करते रहना चाहिए, ताकि हमारे जीवन में निरंतर आध्यात्मिक उन्नति होती रहे.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही मनुष्य अपने जीवन में अपना सतोगुण बढ़ा सकता है, जिसके लिये मनुष्य को अपने जीवन में प्रकृति के सतोगुण का संग 100% करना चाहिए और तमोगुण के मल रुपी संग से अवश्य ही बचना होगा, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य संसारी विषय-भोगों के प्रति मर्यादा से अधिक रुचि से अपने आप को बचा सकता है, जो अक्सर मनुष्य के पतन का मुख्य कारण बनते हैं..... सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही निरन्तर सत्संग करते रहने से परमात्मा को जाना-समझा जा सकता है। सँसार में भी किसी से जुड़ने के लिए उसको सर्वप्रथम जानना ही होता है। इसलिये हम सभी मनुष्यों को बार-बार शास्त्रों का श्रध्दापूर्वक स्वाध्याय करना ही होगा.....सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों को भाग्य से मिलने वाले सुख रुपी फलों के भोग से भी सदा बचना चाहिए, क्योंकि सभी भोग हमें क्रमशः अचेत करते जाते हैं, जिसके फलस्वरूप एक अचेत अवस्था में मनुष्य अन्य जीवों के लिए परोपकार व प्रकृति के संतुलन के लिए कर्म नहीं कर पाता और अन्ततः मनुष्य के पतन होने की संभावनाएँ बड़ जाती हैं......सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक प्रकृति में अंधकार सदा ही बना रहता है, लेकिन सूर्य के प्रकाश आते-आते अन्धकार क्रमश: धीरे-धीरे समाप्त होता जाता है। इसी तरह से अज्ञानता भी एक प्रकार का अंधकार ही है, जोकि ज्ञान रूपी प्रकाश मिलने से ही धीरे-धीरे समाप्त होती जाती है.....सुधीर भाटिया फकीर
निश्काम कर्म करने से हमारा स्थूल शरीर और श्रध्दापूर्वक निरंतर सत्सँग करते रहने से हमारा सूक्ष्म शरीर पवित्र होता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य का मन परमात्मा से जुड़ पाता है, अर्थात् मनुष्य की भक्ति आरंभ होती है, फिर भगवान की भक्ति करने से हमारे कारण शरीर से अशुभ संस्कार समाप्त होने लगते हैं यानी हमारी आध्यात्मिक उन्नति एक गति पकड़ लेती है.....सुधीर भाटिया फकीर
सम्पूर्णता का पहला नाम परमात्मा का लिया जाता है, जबकि अभावों का दूसरा नाम सँसार को माना जाता है। मनुष्य योनि में ही हम अभावों की दलदल से निकल कर परमात्मा को पा कर पूर्ण हो सकते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही परमात्मा को जानने-समझने व पाने का एक अवसर है, जोकि संसार से अलग होकर और परमात्मा से एक होकर ही सम्भव होता है, लेकिन मनुष्य संसार का मोह कभी नहीं छोड़ता और संसार में रहते हुए ही परमात्मा को जानने का प्रयास करता है, इसलिए मनुष्य परमात्मा को जाने बिना ही एक दिन यह दुनिया छोड़ मिला हुआ अवसर का लाभ ही गवां देता है....सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि का जन्म ही परमात्मा को जानने-समझने व पाने का एक अवसर है, यदि मनुष्य मिले हुए अवसर का लाभ नहीं उठाता या इस दिशा की ओर उन्नति नहीं करता, तो मिला हुआ स्थूल शरीर विषय-भोगों की गलियों में कब मर्यादा से अधिक बहने लगता है, मनुष्य को स्वयं भी पता नहीं चलता.....सुधीर भाटिया फकीर
शास्त्रों में 5 प्रकार के विषय गन्ध,रस,रुप,स्पर्श व शब्द बताये गये हैं, जिनका निरंतर चिंतन करते रहने से ही इनको प्रत्यक्ष रूप से भोगने की कामना पैदा होती है, जबकि सभी कामनाएं तो राजा-महाराजाओं की भी पूरी नहीं होती। अक्सर ऐसा भी देखा जाता है कि सभी कामनाएँ पूरी होते रहने से इन्सान में इंसानियत समाप्त हो हैवानियत आने की सम्भावनाएं भी बढ़ जाती हैं.....सुधीर भाटिया फकीर