परमात्मा को आनन्दस्वरुप सत्ता कहा जाता है, जबकि संसार को दुखालय कहा जाता है, फिर भी मनुष्य अपने जीवन में अज्ञानतावश परमात्मा की बजाय सँसार का चयन कर जाता है।
कलयुग में एक साधारण मनुष्य अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए/स्वयं को सुखी करने के लिए दूसरे मनुष्यों को दुखी करने में भी परहेज नहीं करता, इसी प्रक्रिया में मनुष्य कितने पाप-कर्म कर जाता है, मनुष्य को भी स्वयं भी पता नहीं चलता ?
सतो, रजो व तमोगुण से होने वाली क्रियाओं से जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां बनती हैं, उनसे ही हम सभी जीवों को किये गये कर्मों के आधार पर सुख-दुख मिलते रहते हैं।
एक साधारण मनुष्य प्रयत्नपूर्वक } बलपूर्वक }}}}} स्थूल-शरीर की इंद्रियों को नियंत्रण में अस्थाई रूप से ले भी सकता है, लेकिन मन को बिना सत्संग किए नियंत्रण में नहीं लिया जा सकता।
मनुष्य योनि में ही सतोगुण में वृद्घि कर अपने अन्दर सात्विकता को बढ़ाया जा सकता है। सात्विकता बढ़ने से ही मनुष्य में "रजोगुण प्रतिरोधक क्षमता" बढ़ने लगती है, जो अन्तत: मनुष्य को तमोगुण में गिरने से बचाती है।
सभी रजोगुणी भोग-विषय आरंभ में भले ही अल्पकालिक सुख/स्वाद देते हैं, लेकिन अन्ततः यह सभी सुख/स्वाद भविष्य में स्थूल-शरीर के स्तर पर दुख रूपी रोग व सूक्ष्म-शरीर में मन के विकारों की विकृति को और अधिक बढ़ाते हैं।
"संध्या-बेला सन्देश" हम सभी मनुष्यों को स्वयं को सदा ही सत्संग की स्थिति में ही बनाये रखना चाहिए, ताकि हमारे स्वभाव में निरंतर सात्विकता बनी रहे अर्थात् हम पाप-कर्म करने से अवश्य बच सकें, क्योंकि हमारे अधिकांश कर्म स्वभाववश ही होते हैं।
सँसार में अधिकांश मनुष्यों की सुखों को भोगने में परमात्मा की स्मृति क्रमश: कमजोर/समाप्त होने लगती है, जबकि दुखों में सभी मनुष्यों में परमात्मा की स्मृति सहज ही आ जाती है। फिर भी मनुष्य ?
यह सारा संसार लेना-देना पर ही टिका है, आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को अपने जीवन में दूसरों को देने का ही अपना स्वभाव बनाना होगा, क्योंकि लेने का स्वभाव कभी भी संसार छोड़ने नहीं देता।
कर्मयोग/निष्काम-कर्मों से ही हमारा स्थूल-शरीर/तन पवित्र होता है, ज्ञानयोग से हमारा सूक्ष्म-शरीर/मन पवित्र होता है, जबकि भक्तियोग से हमारा कारण-शरीर क्रमश: पवित्र होने से आत्मा अपने मूल ज्ञानस्वरुप में लौट आती है और सहज ही परमात्मा से प्रेम होने लगता है।
शास्त्रों में प्रकृति को माया भी कह दिया जाता है, लेकिन रजोगुण + तमोगुण को अविद्यायुक्त माया और सतोगुण को विद्यायुक्त माया कहा जाता है, इसीलिए प्रकृति का सतोगुण भी विशेष अर्थों में मलिन भी कहा जाता है।
भगवान, आत्मा, प्रकृति/माया यानी 3 गुणों का और हमारे 3 शरीरों का यथार्थ ज्ञान-विज्ञान समझ लेना ही आत्मा की मूल स्थिति में लौट आना है, जिसके फलस्वरूप आत्मा सहज ही संसारी आकर्षणों से ज्ञानपूर्वक वैराग्य कर परमात्मा से प्रेम करने लगती है।
एक साधारण मनुष्य के जीवन में सत्संग का अभाव लम्बे समय पर बने रहने से मनुष्य के जीवन में भी आहार, मैथुन, सोना, भय जैसी पशु-वृतियां सहज ही बढ़ने लगती हैं, जो मनुष्य से कब-कितने पाप-कर्म करवा लेती हैं, मनुष्य को स्वंय भी पता नहीं चलता।
अधिकांश मनुष्य सत्संग के अभाव में जीवन भर संसार में ही आनन्द की तलाश करते-करते 5 भौतिक विषय-सुखों के जाल में स्वयं ही फंस जाते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि भौतिक प्रकृति में दुरव रहित सुख यानी आनन्द है ही नहीं ?
भगवान श्रीकृष्णजी ने इस संसार को दुखालय नाम से सम्बोधित किया है, भले ही दुख रूपी ताप अपने-अपने कर्मों के हिसाब से ही मिलते हैं, लेकिन मनुष्य इसे सुखालय बनाने में ही अपना जीवन खो देता है।
कलयुग में प्राय एक साधारण मनुष्य धन प्राप्ति के लिए पुण्य-कर्म ही नहीं करता, बल्कि पाप-कर्म करने से भी नहीं हिचकता। धन मिलने की आशा में सुख का आभास तो हो सकता है, जबकि धन मिलने पर अल्पकालिक सुख ही मिलता है, दीर्घकालिक नहीं।
सतोगुण अन्ततः सुख, रजोगुण अन्ततः दुख और तमोगुण मोह/अज्ञानता की स्थिति में ले आता है और अज्ञानता में पाप-कर्म सहज ही होने लगते हैं। इसलिए अज्ञानता समाप्त करने के लिए निरन्तर सत्संग करते रहना चाहिए।
स्थूल-शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लाभ की इच्छा रखने पर भी मनुष्य को धर्मानुसार ही पुरूषार्थ करना होता है, लेकिन मन में उठने वाली भोग इच्छायें मनुष्य के मन में लोभ....संग्रह वृति को जन्म देते हुए मनुष्य को तमोगुणी बनाते हुए पाप-नगरी में गिरा देती हैं।
सर्वप्रथम मनुष्य को अपने जीवन की दिनचर्या को अनुशासित व व्यवस्थित रखना चाहिए, ऐसा करने मात्र से जीवन में सात्विकता आने लगती है, जिसके फलस्वरूप श्रद्धापूर्वक सत्संग होता है, जो हमारी आध्यात्मिक यात्रा में गति ले आता है।
हम सभी मनुष्यों को अपने जीवन में यथासम्भव ब्रह्ममुहूर्त में आध्यात्मिक शास्त्रों का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करते रहना चाहिए, ताकि मिले हुए जीवन में सात्विकता बढ़ती जाये अर्थात् जीवन में निरन्तर आध्यात्मिक उन्नति होते हुए जीवन सार्थक हो सके।
हम सभी मनुष्यों की उम्र बढ़ने के साथ-साथ भोग्य इन्द्रियाँ कमजोर होती जाती हैं, ऐसा ज्ञान मन में स्थिर होने पर ही इन विषय-भोगों से ज्ञानपूर्वक वैराग्य होता है और पर भगवान से सहज ही प्रेम होने लगता है।
जैसे सूर्य के प्रकाश के बिना अन्धकार बना ही रहता है और अन्धकार में हमारा तन ठोकरें खाता है, वैसे ही सत्संग के अभाव में अज्ञानता बनी रहती है और अज्ञानता में मन ठोकरें खाता है, फिर भी एक साधारण मनुष्य सत्संग करने से ही मन चुराता है।
मनुष्य जन्म के साथ ही अपने कारण-शरीर में पूर्व की मनुष्य योनि में मरते समय प्रकृति के गुणों का संग्रहित अनुपात यानी स्वभाव लेकर आता है, जो पुनः वर्तमान जीवन में + - यानी सत्संग करने से + व कुसंग होने से - की स्थिति बनते भी देर नहीं लगती।
हम सभी मनुष्यों को 5 रजोगुणी विषय-भोगों को केवल स्थूल-शरीर की आवश्यकतानुसार ही लेना चाहिए, अन्यथा विषय-भोगों में गहरे तल पर उतरने/भोगने से सतोगुण का पकड़ा हुआ हाथ कब छूट जाता है यानी परमात्मा की याद समाप्त होते ही तमोगुण हमें अपनी पकड़ में जकड़ लेता है, हमें स्वयं को भी पता नहीं चलता।
कलयुग में एक साधारण मनुष्य शास्त्रों का यथार्थ ज्ञान समझें बिना अपने जीवन में बार-बार गल्तियां करता रहता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य का पाप-कर्मों का कर्माशय बढ़ने लगता है, जो मनुष्य की मरने के बाद अधोगति का कारण बनता है।
भगवान की सत्ता यानी शक्ति सर्वव्यापक है, अर्थात् हमें उसे कहीं ढूंढना नहीं है, हमें अपनी एकाग्रता से निरंतर अपनी सात्विक स्थिति बनाते हुए अपनी पात्रता बनानी है और पात्रता बन जाने पर परमात्मा स्वयं ही अपना बोध करवा देते हैं।
भौतिक-ज्ञान से अर्जित धन सुख-सुविधा के साधन ही खरीद सकता है, सुख-शान्ति नहीं, जबकि निरन्तर सत्संग करते रहने से प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य को सुख-शान्ति अवश्य ही देने लगता है।
सभी संसारी विषय-भोग आरम्भिक स्थितियों में भले ही सुखों का स्वाद देते हैं, लेकिन भविष्य में यही भोगे गये सुख ही दुखों के बीज डाल देते हैं, जिनमें अंकुरण होने पर प्रतिकूल परिस्थितियाँ ही हमें दुख रूपी ताप से पीड़ित करती हैं।
भगवान की स्मृति बने रहने से हमारा मन सतयुग में रहता है। जबकि रजोगुण + तमोगुण का चिंतन मात्र हमें कलयुग में ले आता है। जो एक सच्चाई है, जिसे अक्सर मनुष्य स्वीकार नहीं करता।
5 विषय-भोगों गन्ध, रस, रुप, स्पर्श व शब्द आदि में निरन्तर चिन्तन बने रहने से यह कारण-शरीर में जाकर वासना बन जाती है, जो परमात्मा से हमारा योग होने नहीं देती अर्थात् परमात्मा से हमारी शुद्ध-भक्ति आरंभ ही नहीं हो पाती।
"संध्या-बेला सन्देश" मन के 5 विकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ही मनुष्य को देर-सबेर पाप-कर्मों में लगा ही देते हैं। मन के इन विकारों पर नियंत्रण पाने के लिए निरन्तर सत्संग करते रहने के अलावा मनुष्य के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। इसे आज ही स्वीकार कर लेना चाहिए।
मनुष्य योनि सत्संग करने के लिये ही मिली है अर्थात् सतोगुण का अधिक से अधिक संग यानी शुद्धतम सतोगुण/ब्रह्ममुहूर्त का संग, क्योंकि ज्ञान के अभाव में तो मनुष्य के कर्म ही सही दिशा में नहीं हो पाते, तब ऐसी स्थिति में भक्ति आरंभ ही नहीं होती। सुधीर भाटिया फकीर
हमारा अगला पांव तभी आगे रखा जाता है, जब आगे खाली (निश्चय) स्थान हो। इसी प्रकार एक सामान्य परिस्तिथियों में अगला नया शरीर/नया जन्म निश्चित हो जाने पर ही पुराना शरीर छूट (मर) जाता है, भले ही योनि विशेष का निर्धारण कर्म + संस्कार के आधार पर ही होता है सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि में ही निरंतर सत्संग करते रहने से अशुद्ध/आवर्त आत्मा को पुन: शुद्ध किया जा सकता है, यही मनुष्य जीवन की शुद्ध कमाई है, जो अगले मनुष्य योनि में भी सुरक्षित बनी रहती है, क्योंकि पूर्व की मनुष्य योनियों में ही विषय-भोगों को अमर्यादित ढंग से भोगने मात्र से हमारी शुद्ध आत्मा का ज्ञान आवर्त हुआ था। सुधीर भाटिया फकीर
कितनी साधारण सी बात शास्त्रों में कही गई है कि भगवान ही सच्चिदानंद/आनंद है, जबकि संसार/प्रकृति को दुखालय बताया गया है, फिर भी अधिकांश मनुष्य बुद्धिमान होने के बावजूद भी सँसार में ही मरते दम तक सुख ढूंढते रहते हैं! सुधीर भाटिया फकीर
प्रकृति को द्वैत इसलिए कह दिया जाता है, क्योंकि यहाँ दो स्थितियाँ देखने को मिलती हैं, जैसे दिन के साथ रात जुड़ी है, उसी तरह से सुख के साथ दुख जुड़ा/छिपा रहता है, जो एक साधारण मनुष्य को ज्ञान के अभाव में सुख चखते समय भविष्य में मिलने वाला दुख नजर नहीं आता। सुधीर भाटिया फकीर
सभी मनुष्यों के सकाम पाप-पुण्य कर्मों पर प्रकृति की पैनी नजर सदा बनी रहती है, लेकिन निष्काम भाव से कर्म आरम्भ होते ही हम प्रकृति की नहीं, परमात्मा की नजरों में आ जाते हैं, बस उसी क्षण ही हमारी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ होती है। सुधीर भाटिया फकीर
प्रकृति के गुणों का एक ऐसा प्रभाव है कि बचपन में तमोगुण की, युवावस्था में रजोगुण की और वृद्धावस्था आने पर मृत्यु के भय से सतोगुण की प्रधानता सहज ही विकसित होने लगती है। फलस्वरूप अधिकांश मनुष्यों की प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से कम-अघिक अनुपात में सत्संग करने में रूचि जाग ही जाती है। सुधीर भाटिया फकीर
कर्मफल सिद्धान्त के अनुसार कोई भी जीवात्मा केवल अपने मनुष्य योनि में ही किए गए कर्म-फलों को ही खा/भोग सकता है, यदि कोई मनुष्य अन्य किसी मनुष्य/जीव का हिस्सा छीनता/खाता है, तो प्रकृति रुपी अदालत उसे दंड दिए बिना नहीं छोड़ती सुधीर भाटिया फकीर
कर्मयोनि होने के कारण हम सभी मनुष्यों की एक विशेष जिम्मेदारी है। यदि मनुष्य अपने जीवन में अपने धर्म/कर्तव्य का पालन ईमानदारी से कर लेता है, तब ऐसी स्थिति में प्रकृति के अन्य मनुष्यों व प्रकृति के शेष सभी जीवों का भी कल्याण होते हुए हमारा स्वयं का जीवन भी सार्थक हो जाता है। सुधीर भाटिया फकीर
जब-जब मनुष्य रसपूर्वक 5 भोग-विषयों का सुख भोगता है, तब-तब कारण-शरीर में इनके संस्कार मजबूत बनते जाते हैं। भले ही भोग्य पदार्थों की उपलब्घता बनी भी रहे, लेकिन भोगने वाली इन्द्रियों की सामर्थ्य सदा बनी नहीं रहती। तब...? इसपर चिन्तन करें! सुधीर भाटिया फकीर
"ब्रह्ममुहूर्त उपदेश" कलयुग में एक साधारण मनुष्य सत्संग के अभाव में बार-बार पाप-कर्म करता ही रहता है, जबकि परमात्मा दयावश इन पाप-कर्मों से मिलने वाले दुखों को सहने की शक्ति भी देते हैं और इन दुखों से बाहर निकलने का अवसर भी देते रहते हैं, लेकिन मनुष्य इन मिले हुए अवसरों का लाभ नहीं उठाता। सुधीर भाटिया फकीर
परमात्मा एक ही है, भले ही रूप अनेक हैं। उसमें मूल तत्व एक ही है। अक्सर एक साघारण मनुष्य अज्ञानतावश अलग-अलग नामों में ही उलझ कर यथार्थ ज्ञान को समझने का प्रयास ही नहीं करता। सुधीर भाटिया फकीर
हम सभी भाई-बहनों को मिले हुए जन्म में परमात्मा को जानने की ही जिज्ञासा रखनी चाहिए, क्योंकि संसार को कितना भी जान लो, लेकिन जान लेने पर भी अन्ततः दुख ही मिलते हैं, जबकि परमात्मा को आशिंक रूप से जान लेने मात्र से हमारी दिनचर्या सात्विक बनने से ही हमें सुख-शान्ति मिलने लगती है। सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्य योनि को एक कर्मयोनि कहा गया है। इसीलिये शास्त्रों में यह करो/विहित और यह मत करो/निषेध द्वारा विस्तार से समझाया गया है। विहित कर्म करने से सुख की और निषेध कर्म करने से भविष्य में दुख की प्राप्ति होना निश्चित है। सुधीर भाटिया फकीर
कर्मफल सिद्धांत के अनुसार ही सभी योनियों के असंख्य जीवों को मनुष्य योनि में ही किये गये पाप-पुण्य कर्मों का फल मिलता है, जिसमें सुख रुपी फलों का त्याग तो सम्भव है, लेकिन दुख रुपी फलों को तो स्वयं ही भोगना पड़ता है। सुधीर भाटिया फकीर www.sudhirbhatiafakir.com
भगवान सभी जीवों के हितैषी है, इसलिए भगवान सभी जीवों से पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक कल्याण करते हैं। सुख की इच्छा रखना तो सभी जीवों का स्वभाव है, लेकिन हमें अपने सुख की प्राप्ति के लिए अन्य सभी जीवों के सुखों का ध्यान रखना भी आवश्यक होता है, अन्यथा ? सुधीर भाटिया फकीर
मनुष्यों के तीन शरीरों में सबसे अधिक महत्व कारण शरीर/संस्कार/स्वभाव को ही देना चाहिए, जबकि अक्सर युवावस्था में होने वाले विवाह स्थूल शरीर को देख कर ही होते हैं, मन के विचार व स्वभाव हम समझ नहीं पाते, तभी इनके परिणाम आज कोर्ट-कचहरी में देखे जा रहे हैं। सुधीर भाटिया फकीर
भौतिक शिक्षा से केवल मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है, जबकि निरंतर सत्संग करते रहने से विवेक-शक्ति जागृत होना आरंभ होती है। विवेक-शक्ति जागने से ही परमात्मा का ज्ञान-विज्ञान समझ में आता है, बुद्धि लगाने से नहीं सुधीर भाटिया फकीर www.sudhirbhatiafakir.com
मनुष्य योनि पाकर हमें परमात्मा द्वारा आध्यात्मिक यात्रा करने का एक अवसर मिलता है यानी मनुष्य मरते दम तक जितनी भी आध्यात्मिक उन्नति कर लेता है, यह अगले मनुष्य योनि तक सुरक्षित बनी रहती है, जबकि भौतिक उन्नति स्थूल-शरीर के मरने के साथ ही समाप्त हो जाती है। सुधीर भाटिया फकीर
जीवन में ऐसा एहसास जगाये रखो कि हर क्षण हम सभी मनुष्यों की मृत्यु निरन्तर नजदीक आती जा रही है यानी निष्काम-कर्म करने का समय निरंतर सिकुड़ता जा रहा है और दूसरी ओर आध्यात्मिक उन्नति करने का अवसर फिसलता जा रहा है, इसपर चिन्तन सदा बनाये रखें। सुधीर भाटिया फकीर www.sudhirbhatiafakir.com
प्रिय मित्रो, जीवन में अपने-अपने कर्तव्य-कर्मों को प्रसन्नतापूर्वक पालन करते रहने से ही मिला हुआ जीवन सार्थक हो पाता है। जिसके लिए जीवन में सात्विकता का बने रहना नितांत आवश्यक है। इस दिशा में आपका मेरे "आध्यात्मिक ज्ञानात्मक चैनल" www.youtube.com/c/SudhirBhatiaFAKIR में बहुत-बहुत स्वागत है। आपका आध्यात्मिक मित्र सुधीर भाटिया फकीर
सारा संसार एक मेले के समान है और अधिकांश मनुष्यों का स्वभाव रजोगुणी होता है यानी ऐसी परिस्थितियों में एक मनुष्य प्रकृति के रजोगुणी सँसारी आकर्षणों से बंध जाता है और फंस जाता है। इसीलिए इन आकर्षणों से बचने के लिए सत्संग करते हुए अपनी सात्विक दिनचर्या बनानी आवश्यक है। सुधीर भाटिया फकीर www.sudhirbhatiafakir.com
"संध्या-बेला सन्देश" मनुष्य योनि में ही कर्म करने का लाइसेंस मिलता है, जैसे सँसार में आत्मरक्षा के लिये पिस्तौल रखने का लाईसेंस मिलता है। जब संसार में पिस्तौल के दुरुपयोग होने पर लाईसेंस रद्द होने के साथ दण्ड भी मिलता है, तब ऐसी स्थिति में मनुष्य द्वारा पाप-कर्म होने से भी पुन: मनुष्य योनि रद्द व नीचे की योनियों में दण्ड भी भोगना पड़ता है। सुधीर भाटिया फकीर www.sudhirbhatiafakir.com
जीवन की एक कटु सच्चाई यह है कि धन अधिक आ जाने पर सत्संग में भी मन उखड़ा-उखड़ा ही रहता है और विषय-भोगों को भोगने पर भी अल्पकालिक ही सुख मिलता है, फिर भी मनुष्य के मन में धन पाने की इच्छा नहीं छूटती ? सुधीर भाटिया फकीर
"संध्या-बेला सन्देश" एक साधारण मनुष्य के मन में अधिक से अधिक विषय-भोगों को भोगने की इच्छा ही मनुष्य के मन में पहले लोभ जन्म लेता है, फिर मनुष्य पदार्थों का संग्रह करने लगता है और फिर संग्रह-वृति ही मनुष्य से कितने पाप-कर्म करवा लेती है, मनुष्य को स्वयं भी पता नहीं चलता.....सुधीर भाटिया फकीर
84 लाख योनियों में केवल मनुष्य ही अपने जीवन-काल में प्रकृति के जिस गुण का जितने-जितने अनुपात में संग करता है, फिर उतने-उतने अनुपात में इन गुणों का रंग/संस्कार मनुष्य के कारण-शरीर में पड़ने से मनुष्य का स्वभाव बनता जाता है, जो मनुष्य के पुण्य-पाप कर्मों को एक दिशा प्रदान करते हैं.....सुधीर भाटिया फकीर
सत्संग के अभाव में मनुष्य के मन में सदा एक बेचैनी सी बनी रहती है, क्योंकि मनुष्य जिस सुख को पाने की इच्छा करता है, उस सुख विशेष की प्राप्ति होने पर भी अल्पकाल के लिये ही खुशी मिलती है और मन फिर पुनः बेचैन हो उठता है, जबकि सच्चाई यह है कि यह मन सत्संग करने पर ही क्रमशः टिकने लगता है.....सुधीर भाटिया फकीर
प्रकृति त्रिगुणात्मक होने के कारण हमारे 3 शरीर है, जिसमें स्थूल-शरीर तामसी, सूक्ष्म-शरीर राजसी व कारण-शरीर सात्विक माने गये हैं। हम सभी मनुष्यों को सत्संग करते हुए अपनी बुद्धि सात्विक बनाते हुए परमात्मा को यथार्थ रूप से जानना चाहिए, क्योंकि बिना जाने परमात्मा से प्रीती हो नहीं पाती.....सुधीर भाटिया फकीर
प्रभु की स्मृति/याद निरन्तर बने रहने मात्र से ही हमारे जीवन में उमंग-उल्लास बनी रहती है, फलस्वरूप होने वाले कर्मों में निष्कामता के भाव रहते हैं, ऐसी स्थिति में मनुष्य से पाप-कर्म होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.....सुधीर भाटिया फकीर
आध्यात्मिक विषयों को स्वयं पढ़ना या किसी महापुरुष से सुनना सत्संग कहलाता है, जो हमें परमात्मा की दिशा में चलने की एक आरंभिक प्रक्रिया है, जैसे बच्चे को प्ले स्कूल/नर्सरी कक्षा में भेजा जाता है, फिर आगे की कक्षायें +++.....सुधीर भाटिया फकीर